इंदौर से नेमावर मार्ग पर 70 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम कमलापुर में सैयदी अली शहीद जी की मजार है । आप उज्जैन में मदफून हसन जी बादशाह के भाई है और आपके एक और बिरादर शाजापुर में मदफून है
क़ुब्बा व कत्लगाह
सैयदी अली शहीद की मज़ार फ़ैज़ , मस्जिद , हॉल और रूम्स वेल मेंटेंड है । बहुत छोटी सी जगह में सभी इमारतें तरतीब से बनी हुई है । बीचोबीच स्थित आपका क़ुब्बा आसपास की हरियाली से अलग ही छटा बिखेरता है । मज़ार के भीतर ही आपकी थोड़ी सी तफसील लिखी हुई है जिसमे बताया गया है कि उस ज़माने में आप इस मार्ग पर ट्राइब्स द्वारा शहीद किये गए थे । मज़ार से ही लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क से लगी हुई आपकी कत्लगाह है । वहाँ भी एक छोटी सी तुरबत फेंसड एरिया में बनी हुई है । ऑफिस सम्हालने वाले साहेब का मिजाज पुरसुकून व शांत है । दोपहर लगभग ढाई बजे मज़ार पर पहुंचने के उपरांत भी आपने मवाईद से तफ्तीश कर मुझे व परिवार को फ़ैज़ की बरकत से बहरोवर किया । ऑफिस ने बताया कि अक्सर जायरीन यहाँ फोन करके ही आते है ताकि उनके जमन का इंतेज़ाम नियत वक़्त पर हो सके । 26 जनवरी बुधवार को सैयदना इस्माईल बदरुद्दीन मौला का उर्स होने से यहाँ जायरीन भी अधिक थे । सुबह खाने का टाईम नमाज़ बाद का है जबकि रात का खाना साढ़े सात से आठ बजे के बीच होता है । साथ ही साथ दो से तीन छोटे छोटे बाघीचे , सफेद कबूतर , बदख , खरगोश , झूले , खेती आदि भी मज़ार केम्पस के अंदर मौजूद है जो आने वाले ज़ायरीन का ध्यान अपनी और खिंचती है । इन सबके बीच वक़्त बिताना यहाँ आने वाले मोमिनों की खुशियों में इज़ाफ़ा करता है ।
मार्ग
इन दिनों डबल चौकी से कमलापुर मज़ार तक लगभग 38 किलोमीटर के रोड में अनेक स्थानों पर बड़े बड़े गड्ढे हो गए है जिससे वाहन चलाने में काफी दुश्वारी होती है । कितने भी गड्ढे बचाओं तीन से चार गड्ढे में वाहन कूद ही जाता है । एक बड़ी आह और व्हील अलायमेंट के डिस्टर्ब होने का खतरा बना ही रहता है । रात के अंधेरे में शायद वाहन चलाना और भी दुश्वार होता होगा । डबल गोला रोड तो है लेकिन नेमावर तक चलने वाले बड़े बड़े रेत के डंपर्स से पार पाना मुश्किल होता है । हाँ डबल चौकी से इंदौर तक लगभग 31 किलोमीटर का रोड बहुत ही अच्छा है । सुबह साढ़े बारह बजे इंदौर से निकलकर मैं परिवार सहित रात 7 बजे घर वापस लौट आया था । अक्सर ज़ायरीन उज्जैन - शाजापुर - कमलापुर का ट्रिप एक साथ ही करते है । कमलापुर दरगाह से लौटकर - मुफ़ज़्ज़ल हुसैन